नारी विमर्श >> चश्में बदल जाते हैं चश्में बदल जाते हैंआशापूर्णा देवी
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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।
चश्में बदल जाते हैं
न, लगता है चश्मा बदलना पड़ेगा।
सुबह की उस रौशनी में भी पढ़ते-पढ़ते अक्षर घुलते हो जाते हैं। लाइनें या तो नीचे वाली लाइनों पर चढ़कर बैठ जाती हैं या फिर ऊपर उठ जाती है।
खाट पर अखबार फैलाकर पढ़ने बैठे थे सोमप्रकाश, खीजते हुए खाट से उतर पड़े। अखबार को तह करके मुट्ठी में पकड़ा और खिड़की के पास आ गये। दूसरे हाथ से खाट के पास रखा बेंत का मोढ़ा खींच लाए।
मोढ़ा इसी कमरे में रहता है। सोमप्रकाश से जो लोग मिलने आते हैं अथवा घर के लोग ही 'सौजन्य साक्षात' करने अगर आए, उनके लिए। इस समय सोमप्रकाश ने उसे अपने काम लगाया। बिल्कुल खिड़की से सटकर बैठें तो पढ़ने में सुविधा होती है। इधर कुछ दिनों से सोच रहे थे कि यह क्या चश्मे के पावर की गड़बड़ी के कारण में है या बुढ़ापे की दृष्टि क्षीणता इसका कारण है? इस क्षीणता का कोई इलाज नहीं है।...लेकिन क्या ऐसी ही बात है? और कोई कारण नहीं है? कमरा भी सहसा चिरस्थायी बादलों से ढक सा गया है।
अभी उस दिन तक सुबह खिड़की खोलते ही कमरा रौशनी से जगमगा उठता था। अचानक अत्यन्त द्रुतगति से वहाँ एक आकाशचुम्बी फ्लैट बनकर खड़ा हो गया है-कानूनन जितनी जगह छोड़नी चाहिए-उतना छोड़कर।
इसीलिए अब कमरे के बीचोंबीच रखें खाट पर बैठकर पढ़ना लिखना सम्भव ही नहीं रह गया है। अतएव-खिड़की से सटकर रखी यह कुर्सी ही भरोसा है।
आश्चर्य! खिड़की के किनारे, वहीं नीचे जो छोटा-सा एक मंजिला मकान था, अपना जराजीर्ण देह लिए, आसपास दो-चार पेड़-पौधों की सम्पदा समेटे, वहीं एक महलनुमा इमारत खड़ा हो गया।
सपने में भी नहीं सोच सकते थे। क्या रूपान्तर है? उन दिनों खिड़की के पास खड़े होते ही दिखाई पड़ती थी उस घर की प्लास्तर उखड़ी छत-कुछ न कुछ सूखा करता था। रस्सी पर कमीज, कथरी, अंगौछा, लुंगी, बनियान पेटीकोट ब्लाउज। और छत पर-या बरी, या अचार, बेरी अथवा आम की फाँके सूखा करती। नहीं तो कन्डे या कोयले के गोले-नारियल की मालायें, सहजन की मोटी फलियाँ...इन सबसे चूल्हा सुलगाया जा सकता है।
अभाव ही सबसे बड़ा आविष्कारक।
सो उस दीनहीन घर के बगल में सोमप्रकाश का विराट ढाई मंजिला मकान राजा की तरह खड़ा रहता था। अब उसने वह महिमा खो दी है। और इसी के साथ-साथ शायद सोमप्रकाश भी 'अपना सब-कुछ' खोते चले जा रहे थे।
दृष्टिशक्ति, श्रवणशक्ति, हजमशक्ति और चलने-फिरने की शक्ति। इसके बदले बढ़ती जा रही है चिन्ताशक्ति। रात-दिन वे चिन्ता करते रहते हैं इस कमरे में, इस खाट पर बैठते लेटते।
घर में क्या और भी कमरे नहीं हैं?
अवश्य हैं।
और सोमप्रकाश चलनशक्ति हीन हैं, ऐसा भी नहीं है। फिर भी इस कमरे से उस कमरे में जाते वक्त खिड़की दरवाजे का सहारा लेना पड़ता है। घर के किसी सदस्य की अगर ऐसे समय में पर नजर पड़ गई तो वह 'हाँ हाँ' करके दौड़ा आयेगा-क्या हुआ? क्या चाहिए? उस कमरे से डिक्शनरी लाने जा रहे हैं? बड़े आश्चर्य की बात है-किसी से कह दिया होता। क्या कह रहे हैं? सिर्फ डिक्शनरी लाने के लिए नहीं...यूँ ही थोड़ा टहलने का मन कर रहा है? तो यह तो अच्छी बात है। डाक्टर तो कहते हैं थोड़ा चलना फिरना जरूरी है। अवनी को साथ लेकर एक बार रुक-रुककर छत पर चढ़ जाइए, वहाँ चहलक़दमी कर आइए। आप तो असल में 'लाठी' लेना बिल्कुल पसन्द नहीं करते हैं। आप कहेंगे 'लाठी माने बूढ़ा भिखारी'-ताज्जुब है। अदभुत बात करते हैं आप। जबकि उनदिनों शौक़ीन बाबू लोगों के लिए छड़ी श्रृंगार का अंश हुआ करता था।
हाँ-'ज्ञान' देने सब आते हैं। लड़के बहुएँ-यहाँ तक कि दामाद भी 1 लड़का का मूँछों की हल्की लकीरों वाला लड़का माने नाती तक। अब सोमप्रकाश इतने लोगों के साथ कितना बहस करें? क्या बतायें कि 'लाठी' और 'छड़ी' दोनों में कितना फर्क है? फिर अगर बहस करते भी हैं तो जीतने की आशा भी तो नहीं है।
एक पुरानी कहावत याद आ गई-'हाथी जब बूढ़ा हो जाता है तब मेढ़क तक लात मारता है।' ये तुलना यद्यपि इस जगह पर फिट नहीं बैठती है क्योकि ये लोग सभी सोमप्रकाश की भलाई और सुविधा के लिए ही कहते हैं फिर भी ऐसे उल्टे-सीधे उदाहरण ही याद आ जाते हैं।
आजकल इन लोगों का 'कहना' और बढ़ गया है, डाक्टर 'चलने' पर ज़ोर डाल रहे हैं इसलिए। एक हार्ट के रोगी के लिए घर के सामने वाला रास्ता बिल्कुल टहलने योग्य नहीं है-अतएव छत ही उत्तम है।
सीढ़ियाँ न चढ़ सकें तो एक कुर्सी पर बैठकर चढ़ाया उतारा जा सकता है। दो हट्टे-कट्टे कुलियों के साथ व्यवस्था करने भर से यह काम चुटकी बजाते हो जाएगा।
इस तरह के कितने प्लान बनाया करते हैं सोमप्रकाश के लिए उनके सगे सम्बन्धी लोग।
लेकिन अगर सोमप्रकाश उस प्यार-मोहब्बत को न स्वीकारें?
उन लोगों के इन सब प्रस्तावों को ठुकरा देते हैं सोमप्रकाश।
इन दिनों एक बार सोचने की कोशिश करते हैं उस 'दृश्य' को।
कुलियों द्वारा छत पर उठाकर पहुँचाए गये सोमप्रकाश और लाठी खुटखुट करके चहलकदमी करने लगे। 'निर्जीव' चाल को 'सजीव' करने के लिए।
और उस दृश्य का अवलोकन करते रहे नए पाँच मंजिले फ्लैट के 'बीस घर' वाशिन्दे अपनी कौतुहलपूर्ण नज़रों से।
जो सोमप्रकाश कभी सीना तानकर इस धरती पर चला करते थे।
उच्चाधिकारी थे। यह बात उनके मन में अहंकार जुटाती थीं। 'सिंह' क्या वृद्ध होने पर भेड़' बन जाता है?
न:! यह बात किसी को कही नहीं जा सकती है। यहाँ तक कि सुकुमारी से भी नहीं। उनसे बताने लगो तो वह भी 'ज्ञान' दान करती हैं-'इन्सान क्या हमेशा एक जैसा रहता है?'
या फिर कहेंगी- 'ये लोग तुम्हारे भले के लिए ही तो कहते हैं।'
क्या सोमप्रकाश बचपन में सुना, मोहल्ले की भवढान-दीदी की तरह गा उठें-
'बहुत भला कर चुकी हो माँ काली
अब भला करने की ज़रूरत नहीं।
अब चैन से जाने से माँ,
रौशनी रहते चला जाऊँ।'
पर ऐसा भी तो नहीं कर सकते हैं। चुप रहते हैं। क्रमश: देख रहे हैं कि चुप रहने जैसे शान्ति और कुछ है ही नहीं।...और सर्वदा दीवाल के पीछे गद्दी पर चढ़कर बैठे रहने में परम शान्ति है। इसी गद्दी पर बैठे-बैठे पढ़ो, चिट्ठी-पत्री लिखो।
अतएव सारे घर में और किसी भी जगह सोमप्रकाश के क़दम नहीं पड़ते हैं। जो सोमप्रकाश कभी घर की फर्श के लिए मोजैक वाले टाइल्स को छाँटने के लिए पाँच-सात दुकानों का चक्कर काटा करते थे, टाइल्स लगाते वक्त ज़रा सा भी नुक्स देखते तो मिस्त्री को डाँट लगाते, फर्श पर ज़रा सा भी धूल देख लेते या फालतू कागज़ का कतरन पड़ा पा जाते तो चिल्लाना शुरु कर देते थे।
वह कागज़ का कतरन कैसा होता?
या तो, ज़ेब से निकाल कर फेंका कोई ट्राम-बस का टिकट, या डाक से आया लिफाफा, जल्दी-जल्दी में ऊपर का हिस्सा फाड़कर अनमने भाव से वहीं फेंका गया-दीवाल के पास रखे 'कूड़ेदान' में न फेंक कर।...वह कूड़ेदान रखा रहता था, यहाँ तक कि जली माचिस की तीली तक फेंकने के लिए।
सोमप्रकाश की व्यवस्था-इधर से उधर होने वाली नहीं थी।
घर के लोग हर समय तटस्थ रहते थे।
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